Sunday 5 June 2011

पाँच सौ रूपये का नोट

इस बात को ज्यादा दिन नहीं हुए हैं जब मेरे ही दो दोस्तों, आदित्य और निखार के माध्यम से मैंने फेस-बुक पर एक विडियो देखा था. ५०० रूपये के महत्व के बारे शायद इतनी गंभीरता से मैंने पहले कभी नहीं सोचा होगा. जहाँ एक तरफ एक भिक्षुक है, एक श्रमिक है, एक गरीब है - जिसे ५०० रूपये से आटा -दाल- चावल खरीदना है. और दूसरी तरफ मेरे जैसे लोगों की एक लम्बी फ़ौज जो किसी सिनेमा - हॉल में जाकर या तो फिल्म देखेगी, या फिर एक अद्धा या खम्बा लाकर हमारी भाषा में " चुदापे " पटकेगी, या फिर खरीददारी. निश्चित रूप से मैं आटे-दाल के बारे में नहीं सोचूंगा. क्योकि सोच का फरक है ना? मेरा मकसद यह बताना नहीं है की इतना अंतर क्यों इन दोनों वर्गों में. मैं यह सोच रहा था की ऐसा क्या हुआ की मुंबई ने मुझे बदल दिया ?

NMIMS  शिरपूर - ५ अगस्त २००७, जब मैंने शिरपुर की पवित्र धरा पैर पहला कदन रखा. सच कहूं, मेरे लिए इतना बड़ा सदमा नहीं था शिरपुर. भाई, मैं भी तो एक गाँव से ही आया था ! शिरपुर के वाकिये का ज़िक्र मैंने इसलिए किया है ताकि फरक करने में आसानी हो. आज के प्रणय में और तब के प्रणय में बहुत अंतर है. मुझे लोग निहायती खर्चीला कहते हैं. पर हमेशा से मैं ऐसा नहीं था. अब लौटते हैं शिरपूर. सच कह रहा हूँ, तब मैं 2 कमीज़, 3 टी-शर्ट और ३ जींस लेकर आया था. माँ ने बोला था की धोबी से धुलवा लेना. घर पर भी तो माँ कपडे धो ही देती थी ना? बात मान कर मैं आ गया शिरपूर. और तब मैंने पहले बात देखे, मुंबई के रईस और खानदानी लड़के. आदिदास  और नाईकी तो टीवी पर देखता था, जब क्रिकेट में हमारे देश के खिलाडियों को वो सब jerseys पहने देखा . KAPPA, Van Huizen , levis  के तो नाम भी नहीं सुने थे. सब के बीच में मुझे अजीब लगता था. उन कपड़ो में से गाँव के किसी गंवार की बू आने लगी थी . दो पल भी यह नहीं सोचा की 'अरे बेवकूफ ! यही पहन कर तू बड़ा हुआ है, तेरे पिता और तेरे दोस्त अब भी यही पहनते हैं. इनमें से बू कैसे आ सकती है? ' पर नहीं. अब तोह मुझे मेरे बदन पैर ब्रांडेड और महंगे कपडे चाहिए थे. सो मैं लाने लगा. और तब उस गंवार प्रणय को मैंने कहीं पीछे छोड़ दिया. फिर पता चला की बालों में तेल नहीं डालो वर्ना लोग फिर तुम्हें गंवार समझेंगे. अगर घर में मारुती ८०० कार है तो किसी को बताना मत. वर्ना लोग तुम्हारी कार तक पर भी हंस सकते हैं. दोस्तों के साथ महंगे होटलों में गलती से भी चले गए, तोह फिर जी भर कर आर्डर करना पड़ेगा, वर्ना दोस्त कहेंगे 'साला ! चिंदी ही रहेगा..' कैसा चिंदी भाई ? मेरा बाप आज तक किसी होटल में नहीं गया खाना खाने. एक बार में ५०० रूपये खाने पर खर्च करना आसान नहीं होता था तब मेरे लिए. पर अब, आदत हो गयी गई. अगर दोस्तों के साथ बाहर नहीं जाओ, तो कहेंगे ' Dude ! He doesn't socialize much..' पर बॉस, तुम्हारे socializing की कीमत ५०० रूपये होती है. जो कई लोगो की ज़ेब से बड़ी है. ५०० रूपये मैं उन लोगों पर क्यों खर्च करूँ , जो घर के पीछे से दोस्त के लिए १ लीटर दूध भी नहीं ला सकते, और हमसे socialize करने की उम्मीद करते हैं.  नाम नहीं लूँगा, जब बीमार था तो किसी रईस-जादे को दवा लाने के पैसे दिए थे, जवाब मिला की जब जाऊंगा तब ले आऊंगा. विश्वास करोगे ? अपने तपते शरीर को लेकर जैसे-तैसे मैं खुद दवा लाया. 

समझ में आ रहा है. दिखावा कुछ काम का नहीं है. ब्रांडेड कमीज़ अंदर के कुत्ते को नहीं ढक सकता. वो तो वक़्त-बेवक्त भौंकता ही है. जो परिवर्तन आ गए हैं शायद उन्हें पीछे छोड़ना कठिन हैं, पर मुझे और नहीं बदलना. मैं साधारण ही सही हूँ. मुझे ५०० रूपये को संभालना सीखना है. ये काम कतई आसान नहीं है. पूरी ज़िन्दगी निकल जायेगी ये सीखने में. पर सीखना तो है.  :)

Sunday 29 May 2011

५०० रूपये का एक note - भाग 1

मेरे प्यारे साथियो :)


लिखने का मन कर रहा था, तो सोचा की क्यों ना श्री-गणेश कर ही दिया जाए ? जितने अच्छे से मैं अपने आप की हिंदी में व्यक्त कर सकता हूँ, शायद अंग्रेजी में नहीं. तो मैंने निश्चय किया की मेरा माध्यम हिंदी ही रहेगा... मैं अतिशीघ्र मेरे पहले लेख, "५०० रूपये का एक note" के साथ अपनी शुरुवात करूँगा, और उम्मीद करता हूँ की तुम लोगो को अच्छा लगेगा..